Thursday 4 August 2011

जीवन का क्या उद्देश्य है ?

Purpose of Life

candilएक ज्ञान वह है जो इंसान की ज़रूरतों से सम्बंधित होता है, जिसे दुनिया का ज्ञान कहते हैं. इसके लिए ईश्वर ने कोई संदेशवाहक नहीं भेजा, बल्कि वह ज्ञान उसने मस्तिष्क में पहले से सुरक्षित कर दिया है. जब किसी चीज़ की आवश्यकता होती है तो मनुष्य मेहनत करता है, उस पर रास्ते खुलते चले जाते हैं.
एक ज्ञान यह है जो जीवन के उद्देश्य से सम्बंधित है कि “मनुष्य दुनिया में आया क्यों है?” अब यह स्वयं दुनिया में आया होता तो इसे मालूम होता कि वह क्यों आया है. अगर मनुष्य ने अपने आप को स्वयं बनाया होता तो इसे मालूम होता कि इसके बनने का मकसद क्या है?
हम जब कहीं भी जाते हैं, तो हमारा वहां जाने का मकसद होता है, और हमें पता होता है कि हम वहां क्यों जा रहे हैं. ना तो मनुष्य स्वयं आया है और ना इसने अपने आप को स्वयं बनाया है. ना यह अपनी मर्ज़ी से अपना समय लेकर आया है और ना अपनी मर्ज़ी से अपनी शक्ल-सूरत लेकर आया है. पुरुष, पुरुष बना किसी और के चाहने से, महिला, महिला बनी किसी और के चाहने से. रंग-रूप, खानदान, परिवार, यानि जो भी मिला है इस सबका फैसला तो कहीं और से हुआ है. जीवन का समय तो किसी और ने तय किया हुआ है, वह कौन है यह सबसे पहला ज्ञान था.
खाना कैसे बनाना है, यह धीरे-धीरे अपने आप ही पता चल गया मनुष्य को. फसलें कैसे उगानी है, उद्योग कैसे चलने हैं, इस ज्ञान के लिए कोई संदेशवाहक नहीं भेजा गया. मनुष्य सोचता रहा, वह रहनुमाई करता रहा. यह ज्ञान भी अल्लाह / ईश्वर ही देता है. बेशुमार, बल्कि अक्सर जो भी खोजें हुई वह अपने आप ही हो गई . इंसान कुछ और खोज रहा था, और कुछ और मिल गया. इस तरह वह ज्ञान भी ईश्वर ने ही दिया है.
लेकिन इंसान खुद की कोशिशों से सारी ज़िन्दगी भी यह पता नहीं लगा सकता है कि मैं कहा से आया हूँ? मुझे किसने भेजा है? मुझे किसने पैदा किया है? यह मुझे मारता कौन है? मैं तो स्वास्थ्य से सम्बंधित हर बात पर अमल कर रहा था, फिर यह दिल का दौरा कैसे पड़ गया? और मैंने तो सुरक्षा के सारे बंदोबस्त कर रखे थे, फिर यह साँस किसने खींच ली? जीती जागती देह का अंत कैसे हो गया? यह वो प्रश्न है जिसका उत्तर इंसान के पास नहीं है, ना ही इसके मस्तिष्क में है. किसी इंसानी किताब में भी इसका उत्तर नहीं मिल सकता. यह वह प्रश्न है जिसका उत्तर बाहर से मिलता है. गाडी कैसे बनानी है इसका ज्ञान इंसान के अन्दर था, जो धीरे-धीरे बाहर आ गया. एक मशहूर कहावत है कि “आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है”. जब कार का आविष्कार हुआ तो उसकी शक्ल आज के घोड़े-तांगे जैसी थी, बनते-बनते आज इसकी शक्ल कैसी बन गई! यह ऐसा ज्ञान है जो दिमाग में पहले से ही मौजूद है, इंसान मेहनत करता रहता है, उसको राहें मिलती रहती हैं.
लेकिन कुछ प्रश्न है, जिनका उत्तर मनुष्य के पास नहीं है. जैसे कि, मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाऊंगा? किसने भेजा है? मरते क्यों हैं? मृत्यु के बाद क्या है? मृत्यु स्वयं क्या चीज़ है? मृत्यु के बारे में विज्ञानं की किताबों में 200 से भी अधिक उत्तर लिखे हुए हैं, सारे ही गलत हैं. यह सबसे पहला ज्ञान यह है, कि मुझे भेजने वाला कौन है? मुझे क्यों भेजा गया है? इसलिए जीवन का सबसे अहम् प्रश्न यह है कि मुझे इस पृथ्वी पर भेजने का उद्देश्य क्या है? अगर कोई इस प्रश्न में मात खा गया तो वह बहुत बड़े नुक्सान का शिकार हो जाएगा. ईश्वर ने इस प्रश्न का उत्तर बताने के लिए सवा लाख संदेशवाहकों को भेजा. उन्होंने आकर बताया कि हमारा पैदा करने वाला ईश्वर है, और उसने हमें एक मकसद देकर भेजा है, जीवन ईश्वर देता है और मौत ईश्वर लाता  है, इंसान गंदे पानी से बना है और इससे पहले मिटटी से बना है. ईश्वर ने अपने संदेशवाहकों के ज़रिये बताया कि दुनिया परीक्षा की जगह हैं. यहाँ हर एक को अपने हिसाब से जीवन को यापन करने का हक है क्योंकि इसी जीवन के हिसाब से परलोक में स्वर्ग और नरक का फैसला होना है. हाँ यह बात अवश्य है, कि समाज सुचारू रूप से चलता रहे और किसी को किसी की वजह से परेशानी ना हो, इसलिए दुनिया के लिए विधान भी बनाया.
ईश्वर ने मनुष्यों को दुनिया में भेजने से पहले स्वर्ग और नरक बनाये, तब सभी आत्माओं से आलम-ए-अरवा (आत्माओं के लोक) में मालूम किया क्या वह ईश्वर को रब (पालने वाला) मानते हैं, तो सभी ने एक सुर में कहा हाँ.
Imam Junayd, radiya’llahu anhu, said that Allah, subhanahu wa ta’ala, gathered before the creation of the world all of the spirits, all the arwah, and said,
Qur’an 7:172:
Alastu bi-Rabbikum? (Am I not your Lord?)
They said, “We testify that indeed You are!”


[7:172] Recall that your Lord summoned all the descendants of Adam, and had them bear witness for themselves: “Am I not your Lord?” They all said, “Yes. We bear witness.” Thus, you cannot say on the Day of Resurrection, “We were not aware of this.”
तब ईश्वर ने कहा ऐसे नहीं, अपितु वह दुनिया में भेज कर परीक्षा लेगा कि कौन उसके बताये हुए रास्ते पर चलता है और कौन नहीं. ताकि कोई भी ईश्वर पर यह दोष न लगा सके की उसके साथ अन्याय हुआ.  परीक्षा से सबको पता चल जायेगा की कौन पास होगा और कौन फेल, इसमें कुछ आंशिक रूप से भी फेल / पास हो सकते हैं और कुछ पूर्ण रूप से भी. ईश्वर कहता है कि न्याय के दिन सबके साथ न्याय होगा, किसी के साथ तनिक भी अन्याय नहीं होगा. इसलिए जो भी इस पृथ्वी में उसको रब मानता है और अच्छे कर्म करता है  अर्थात उसके बताए हुए रास्ते पर चलता है तो स्वर्ग का वासी होगा और जो उसको जानने, पहचानने के बाद भी उसको अपना रब स्वीकार नहीं करता, जीवन में उसके आदेशों की अवहेलना करता है, वह नरक का वासी होगा.
ईश्वर ने मनुष्य को उसके जीवन का उद्देश्य और जीवन को व्यतीत करने का आदर्श तरीका समझाने के लिए समय-समय पर एवं पृथ्वी के हर कोने में महापुरुषों को अपना संदेशवाहक बना कर भेजता है, जैसे कि श्री इब्राहीम , श्री नुह , श्री शीश इत्यादि. बहुत से इस्लामिक विद्वान यह मानते हैं कि इस क्रम में श्री राम और श्री कृष्ण जैसे महापुरुष भी शामिल हो सकते हैं. शीश का जन्म अयोध्या में बताया जाता है और अक्सर विद्वान इस बात पर विश्वास करते हैं, कि श्री नुह ही महाऋषि मनु हैं. नुह और मनु की कहानी में भी बहुत सी समानताएं पाई जाती हैं.
ईश्वर ने आखिर में महापुरुष मुहम्मद (उन पर शांति हो) को भेजा और उनके साथ अपनी वाणी कुरआन को भेजा. कुरआन में ईश्वर ने बताया कि उसने इस पृथ्वी (के हर कोने और हर देश में) पर एक लाख, 25 हज़ार के आस-पास संदेशवाहकों को भेजा है, जिसमे से कई को अपनी पुस्तक (अर्थात ज्ञान और नियम) के साथ भेजा है. लेकिन कुछ स्वार्थी लोगो ने केवल कुछ पैसे या फिर अपनी प्रसिद्धि के लोभवश उन पुस्तकों में से काफी श्लोकों को बदल दिया. तब ईश्वर ने कुरआन के रूप में अपनी वाणी को आखिरी संदेशवाहक मुहम्मद (उन पर शांति हो) के पास भेजा और क्योंकि वह आखिरी दूत थे और कुरआन को ईश्वर ने अंतिम दिन तक के लिए बनाया था इसलिए यह ज़िम्मेदारी ईश्वर ने स्वयं अपने ऊपर ली कि इस पुस्तक में धरती के अंतिम दिन तक कोई बदलाव नहीं कर पायेगा.
ईश्वर ने यह सारा निजाम मनुष्य के इसी उद्देश्य के बारे में आगाह करने के लिए बनाया. दुनिया में उपलब्ध अनेकों-नेक साधनों का प्रयोग केवल जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायता के लिए हैं. दुनिया की हर वस्तु किसी ना किसी रूप में मनुष्य की सहायता के लिए ही बनाई गई है जो इसको इसके उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक होती हैं.
प्रस्तुतकर्ता: - शाहनवाज़ सिद्दीकी

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सिर्फ इस्लाम ही क्यों ?

Why should a person only follow Islam?
(सभी धर्म मनुष्यों को सच्चाई की शिक्षा देते हैं तो फिर इस्लाम ही का अनुकरण क्यों किया जाए?)

प्रश्नः सभी धर्म अपने अनुयायियों को अच्छे कामों की शिक्षा देते हैं तो फिर किसी व्यक्ति को इस्लाम का ही अनुकरण क्यों करना चाहिए? क्या वह किसी अन्य धर्म का अनुकरण नहीं कर सकता?

उत्तरः
इस्लाम और अन्य धर्मों में विशेष अंतर
यह ठीक है कि सभी धर्म मानवता को सच्चाई और सद्कर्म की शिक्षा देते हें और बुराई से रोकते हैं किन्तु इस्लाम इससे भी आगे तक जाता है। यह नेकी और सत्य की प्राप्ति और व्यक्तिगत एवं सामुहिक जीवन से बुराईयों को दूर करने की दिशा में वास्तविक मार्गदर्शक भी है। इस्लाम न केवल मानव प्रकृति को महत्व देता है वरन् मानव जगत की पेचीदगियों की ओर भी सजग रहता है। इस्लाम एक ऐसा निर्देश है जो अल्लाह तआला की ओर से आया है, यही कारण है कि इस्लाम को ‘‘दीन-ए-फ़ितरत’’ अर्थात ‘प्राकृतिक धर्म’ भी कहा जाता है।
उदाहरण

इस्लाम केवल चोरी-चकारी, डाकाज़नी को रोकने का ही आदेश नहीं देता बल्कि इसे समूल समाप्त करने के व्यावहारिक तरीके भी स्पष्ट करता है।

(क) इस्लाम चोरी, डाका इत्यादि अपराध समाप्त करने के व्यावहारिक तरीके सपष्ट करता है
सभी प्रमुख धर्मों में चोरी चकारी और लूट आदि को बुरा बताया जाता है। इस्लाम भी यही शिक्षा देता है तो फिर अन्य धर्मों और इस्लाम की शिक्षा में क्या अंतर हुआ? अंतर इस तथ्य में निहित है कि इस्लाम चोरी, डाके आदि अपराधों की केवल निन्दा करने पर ही सीमित नहीं है, वह एक ऐसा मार्ग भी प्रशस्त करता है जिस पर चलकर ऐसा समाज विकसित किया जाए, जिस में लोग ऐसे अपराध करें ही नहीं।

(ख) इस्लाम में ज़कात का प्रावधान है
इस्लाम ने ज़कात देने की एक विस्तृत व्यवस्था स्थापित की है। इस्लामी कानून के अनुसार प्रत्येक वह व्यक्ति जिसके पास बचत की मालियत (निसाब) अर्थात् 85 ग्राम सोना अथवा इतने मूल्य की सम्पत्ति के बराबर अथवा अधिक हो, वह साहिब-ए-निसाब है, उसे प्रतिवर्ष अपनी बचत का ढाई प्रतिशत भाग ग़रीबों को देना चाहिए। यदि संसार का प्रत्येक सम्पन्न व्यक्ति ईमानदारी से ज़कात अदा करने लगे तो संसार से दरिद्रता समाप्त हो जाएगी और कोई भी मनुष्य भूखा नहीं मरेगा।

(ग) चोर, डकैत को हाथ काटने की सज़ा
इस्लाम का स्पष्ट कानून है कि यदि किसी पर चोरी या डाके का अपराध सिद्ध हो तो उसके हाथ काट दिया जाएंगे। पवित्र क़ुरआन में आदेश हैः

‘‘और चारे, चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष, दोनों के हाथ काट दो, यह उनकी कमाई का बदला है, और अल्लाह की तरफ़ से शिक्षाप्रद सज़ा, अल्लाह की क़ुदरत सब पर विजयी है और वह ज्ञानवान एवं दृष्टा है।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह अल-मायदा, आयत 38)

ग़ैर मुस्लिम कहते हैं ‘‘इक्कीसवीं शताब्दी में हाथ काटने का दण्ड? इस्लाम तो निर्दयता और क्रूरता का धर्म है।

(घ) परिणाम तभी मिलते हैं जब इस्लामी शरीअत लागू की जाए
अमरीका को विश्व का सबसे उन्नत देश कहा जाता है, दुर्भाग्य से यही देश है जहाँ चोरी और डकैती जैसे अपराधों का अनुपात विश्व में सबसे अधिक है। अब ज़रा थोड़ी देर को मान लें कि अमरीका में इस्लामी शरीअत कानून लागू हो जाता है अर्थात प्रत्येक धनाढ्य व्यक्ति जो साहिब-ए-निसाब हो पाबन्दी से अपने धन की ज़कात अदा करे (चाँद के वर्ष के हिसाब से) और चोरी-डकैती का अपराध सिद्ध हो जाने के पश्चात अपराधी के हाथ काट दिये जाएं, ऐसी अवस्था में क्या अमरीका में अपराधों की दर बढ़ेगी या उसमें कमी आएगी या कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा? स्वाभाविक सी बात है कि अपराध दर में कमी आएगी। यह भी होगा कि ऐसे कड़े कानून के होने से वे लोग भी अपराध करने से डरेंगे जो अपराधी प्रवृति के हों।

मैं यह सवीकार करता हूँ कि आज विश्व में चोरी-डकैती की घटनाएं इतनी अधिक होती हैं कि यदि तमाम चारों के हाथ काट दिये जाएं तो ऐसे लाखों लोग होंगे जिनके हाथ कटेंगे। परन्तु ध्यान देने योग्य यह तथ्य है कि जिस समय आप यह कानून लागू करेंगे, उसके साथ ही चोरी और डकैटी की दर में कमी आ जाएगी। ऐसे अपराध करने वाला यह कृत्य करने से पहले कई बार सोचेगा क्योंकि उसे अपने हाथ गँवा देने का भय भी होगा। केवल सज़ा की कल्पना मात्र से चोर डाकू हतोत्साहित होंगे और बहुत कम अपराधी अपराध का साहस जुटा पाएंगे। अतः केवल कुछ लोगों के हाथ काटे जाने से लाखों करोड़ो लोग चोरी-डकैती से भयमुक्त होकर शांति का जीवन जी सकेंगे। इस प्रकार सिद्ध हुआ कि इस्लामी शरीअत व्यावहारिक है और उससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।

उदाहरण:
इस्लाम में महिलाओं का अपमान और बलात्कार हराम है। इस्लाम में स्त्रियों के लिये हिजाब (पर्दे) का आदेश है और व्यभिचार (अवैध शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाने पर व्याभिचारी के लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान है

(क) इस्लाम में महिलाओं के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती और बलात्कार को रोकने का व्यावहारिक तरीका स्पष्ट किया गया है
सभी प्रमुख धर्मों में स्त्री के साथ बलात्कार और ज़ोर-ज़बरदस्ती को अत्यंत घिनौना अपराध माना गया है। इस्लाम में भी ऐसा ही है। तो फिर इस्लाम और अन्य धर्मों की शिक्षा में क्या अंतर है?

यह अंतर इस यर्थाथ में निहित है कि इस्लाम केवल नारी के सम्मान की प्ररेणा भर को पर्याप्त नहीं समझता, इस्लाम ज़ोर ज़बरदस्ती और बलात्कार को अत्यंत घृणित अपराध कष्रार देकर ही संतुष्ट नहीं हो जाता बल्कि वह इसके साथ ही प्रत्यक्ष मार्गदर्शन भी उपलब्ध कराता है कि समाज से इन अपराधों को कैसे मिटाया जाए।

(ख) पुरुषों के लिए हिजाब
इस्लाम में हिजाब की व्यवस्था है। पवित्र क़ुरआन में पहले पुरुषों के लिए हिजाब की चर्चा की गई है उसके बाद स्त्रियों के हिजाब पर बात की गई है। पुरुषों के लिए हिजाब का निम्नलिखित आयत में आदेश दिया गया हैः

‘‘हे नबी! (सल्लॉ) मोमिन पुरुषों से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें और अपनी शर्मगाहों (गुप्तांगों) की हिफ़ाज़त करें। यह उनके लिए पाकीज़ा तरीकष है। जो कुछ वे करते हैं अल्लाह उस से बाख़बर रहता है। (पवित्र क़ुरआन , 24:30)

जिस क्षण किसी पुरुष की दृष्टि (नामहरम) स्त्री पर पड़े और कोई विकार या बुरा विचार मन में उत्पन्न हो तो उसे तुरन्त नज़र नीची कर लेनी चाहिए।

(ग) स्त्रियों के लिए हिजाब
स्त्रियों के लिए हिजाब की चर्चा निम्नलिखित आयत में की गई है।

‘‘हे नबी! (सल्लॉ) मोमिन औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें, अपना बनाव सिंघार न दिखाएं, केवल उसके जो ज़ाहिर हो जाए और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों का आँचल डाले रहें।’’ (पवित्र क़ुरआन , 24:31)

स्त्रियों के लिए हिजाब की व्याख्या यह है कि उनका शरीर पूरी तरह ढका होना चाहिए। केवल चेहरा और कलाईयों तक। हाथ वह भाग हैं जो ज़ाहिर किए जा सकते हैं फिर भी यदि कोई महिला उन्हें भी छिपाना चाहे तो वह शरीर के इन भागों को भी छिपा सकती है परन्त कुछ उलेमा-ए-दीन का आग्रह है कि चेहरा भी ढका होना चाहिए।

(घ) छेड़छाड़ से सुरक्षा, हिजाब
अल्लाह तआला ने हिजाब का आदेश क्यों दिया है? इसका उत्तर पवित्र क़ुरआन ने सूरह अहज़ाब की इस आयत में उपलब्ध कराया हैः

‘‘हे नबी! (सल्लॉ) अपनी पत्नियों और पुत्रियों और ईमान वालों की स्त्रियों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें। यह उचित तरीकष है ताकि वह पहचान ली जाएं और सताई न जाएं। अल्लाह क्षमा करने वाला और दयावान है।’’ (पवित्र क़ुरआन, सूरह अहज़ाब, आयत 59)

पवित्र क़ुरआन कहता है कि स्त्रियों को हिजाब करना इसलिए ज़रूरी है ताकि वे सम्मानपूर्वक पहचानी जा सकें और यह कि हिजाब उन्हें छेड़-छाड़ से भी बचाता है।

(ङ) जुड़वाँ बहनों का उदाहरण
जैसा कि हम पीछे भी बयान कर चुके हैं, मान लीजिए कि दो जुड़वाँ बहनें हैं जो समान रूप से सुन्दर भी हैं। एक दिन वे दोनों एक साथ घर से निकलती हैं। एक बहन ने इस्लामी हिजाब कर रक्खा है अर्थात उसका पूरा शरीर ढंका हुआ है। इसके विपरीत दूसरी बहन ने पश्चिमी ढंग का मिनी स्कर्ट पहना हुआ है अर्थात उसके शरीर का पर्याप्त भाग स्पष्ट दिखाई दे रहा है। गली के नुक्कड़ पर एक लफ़ंगा बैठा है जो इस प्रतीक्षा में है कि कोई लड़की वहाँ से गुज़रे अैर वह उसके साथ छेड़छाड़ और शरारत करे। सवाल यह है कि जब वे दोनों बहनें वहाँ पहुचेगी तो वह लफ़ंगा किसको पहले छेड़ेगा। इस्लामी हिजाब वाली को अथवा मिनी स्कर्ट वाली को? इस प्रकार के परिधान जो शरीर को छिपाने की अपेक्षा अधिक प्रकट करें एक प्रकार से छेड़-छाड़ का निमंत्रण देते हैं। पवित्र क़ुरआन ने बिल्कुल सही फ़रमाया है कि हिजाब स्त्री को छेड़-छाड़ से बचाता है।

(च) ज़ानी (कुकर्मी) के लिए मृत्युदण्ड
यदि किसी (विवाहित) व्यक्ति के विरुद्ध ज़िना (अवैध शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाए तो इस्लामी शरीअत के अनुसार उसके लिए मृत्युदण्ड है, आज के युग में इतनी कठोर सज़ा देने पर शायद ग़ैर मुस्लिम बुरी तरह भयभीत हो जाएं। बहुत से लोग इस्लाम पर निर्दयता और क्रूरता का आरोप लगाते हैं। मैंने सैंकड़ो ग़ैर मुस्लिम पुरुषों से एक साधारण सा प्रश्न किया। मैंने पूछा कि ख़ुदा न करे, कोई आपकी पत्नी या माँ, बहन के साथ बलात्कार करे और आप को उस अपराधी को सज़ा देने के लिए जज नियुक्त किया जाए और अपराधी आपके सामने लाया जाए तो आप उसे क्या सज़ा देंगे? उन सभी ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा कि ‘‘हम उसे मौत की सज़ा देंगे।’’ कुछ लोग तो इससे आगे बढ़कर बोले, ‘‘हम उसको इतनी यातनाएं देंगे कि वह मर जाए।’’

इसका मतलब यह हुआ कि यदि कोई आपकी माँ, बहन या पत्नि के साथ बलात्कार का अपराधी हो तो आप उस कुकर्मी को मार डालना चाहते हैं। परन्तु यदि किसी दूसरे की पत्नी, माँ, बहन की इज़्ज़त लूटी गई तो मौत की सज़ा क्रूर और अमानवीय हो गई। यह दोहरा मानदण्ड क्यों है?

(छ) अमरीका में बलात्कार की दर सब देशों से अधिक है
अब मैं एक बार फिर विश्व के सबसे अधिक आधुनिक देश अमरीका का उदाहरण देना चाहूँगा। एफ़.बी.आई की रिपोर्ट के अनुसार 1995 के दौरान अमरीका में 10,255 (एक लाख दो सौ पचपन) बलात्कार के मामले दर्ज हुए। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बलात्कार की समस्त घटनाओं में से केवल 16 प्रतिशत की ही रिपोर्ट्स दर्ज कराई गईं। अतः 1995 में अमरीका में बलात्कार की घटनाओं की सही संख्या जानने के लिए दर्ज मामलों की संख्या को 6.25 से गुणा करना होगा। इस प्रकार पता चलता है कि बलात्कार की वास्तविक संख्या 640,968 (छः लाख, चालीस हज़ार, नौ सौ अड़सठ) है।

एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया कि अमरीका में प्रतिदिन बलात्कार की 1900 घटनाएं होती हैं। अमरीकी प्रतिरक्षा विभाग के एक उप संस्थान ‘‘नैशनल क्राइ्रम एण्ड कस्टमाईज़ेशन सर्वे, ब्यूरो आफ़ जस्टिस’’ द्वारा जारी किए गए आँकड़ों के अनुसार केवल 1996 के दौरान अमरीका में दर्ज किये गए बलात्कार के मामलों की तादाद तीन लाख, सात हज़ार थी जबकि यह संख्या वास्तविक घटनाओं की केवल 31 प्रतिशत थी। अर्थात सही संख्या जानने के लिए हमें इस तादाद को 3226 से गुणा करना होगा। गुणान फल से पता चलता है कि 1996 में अमरीका में बलात्कारों की वास्तविक संख्या 990,332 (नौ लाख, नब्बे हज़ार, तीन सौ बत्तीस) थी। अर्थात् उस वर्ष अमरीका में प्रतिदिन 2713 बलात्कार की वारदातें हुईं अर्थात् प्रति 32 सेकेण्ड एक बलात्कार की घटना घटी। कदाचित् अमरीका के बलात्कारी काफ़ी साहसी हो गए हैं। एफ.बी.आई की 1990 वाली रिपोर्ट में तो ये भी बताया गया था कि केवल 10 प्रतिशत बलात्कारी ही गिरफ़्तार हुए। यानी वास्तविक वारदातों के केवल 16 प्रतिशत अपराधी ही कानून के शिकंजे में फंसे। जिनमें से 50 प्रतिशत को मुकदमा चलाए बिना ही छोड़ दिया गया। इसका मतलब यह हुआ कि केवल 8 प्रतिशत बलात्कारियों पर मुकष्दमे चले। दूसरे शब्दों में यही बात इस प्रकार भी कह सकते हैं कि यदि अमरीका में कोई व्यक्ति 125 बार बलात्कार का अपराध करे तो संभावना यही है कि उसे केवल एक बार ही उसको सज़ा मिल पाएगी। बहुत-से अपराधी इसे एक अच्छा ‘‘जुआ’’ समझते हैं।

यही रिपोर्ट बताती है कि मुक़दमे का सामना करने वालों में 50 प्रतिशत अपराधियों को एक वर्ष से कम कारावास की सज़ा सुनाई गई। यद्यपि अमरीकी कानून में बलात्कार के अपराध में 7 वर्ष सश्रम कारावास का प्रावधान है। यह देखा गया है कि अमरीकी जज साहबान पहली बार बलात्कार के आरोप में गिरफ़्तार लोगों के प्रति सहानुभूति की भावना रखते हैं। अतः उन्हें कम सज़ा सुनाते हैं। ज़रा सोचिए! एक अपराधी 125 बार बलात्कार का अपराध करता है और पकड़ा भी जाता है तब भी उसे 50 प्रतिशत संतोष होता है कि उसे एक वर्ष से कम की सज़ा मिलेगी।

(ज) इस्लामी शरीअत कानून लागू कर दिया जाए तो परिणाम प्राप्त होते हैं
अब मान लीजिए कि अमरीका में इस्लामी शरीअत कानून लागू कर दिया जाता है। जब भी कोई पुरुष किसी नामहरम महिला पर निगाह डालता है और उसके मन में कोई बुरा विचार उत्पन्न होता है तो वह तुरन्त अपनी नज़र नीची कर लेता है। प्रत्ेयक स्त्री इस्लामी कानून के अनुसार हिजाब करती है अर्थात अपना सारा शरीर ढाँपकर रखती है। इसके बाद यदि कोई बलात्कार का अपराध करता है तो उसे मृत्यु दण्ड दिया जाए।

प्रश्न यह है कि यह कानून अमरीका में लागू हो जाने पर बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि होगी अथवा कमी आएगी या स्थिति जस की तस रहेगी?

स्वाभाविक रूप से इस प्रश्न का उत्तर होगा कि इस प्रकार का कानून लागू होने से बलात्कार घटेंगे। इस प्रकार इस्लामी शरीअत के लागू होने पर तुरन्त परिणाम प्राप्त होंगे।

मानव समाज की समस्त समस्याओं का व्यावहारिक समाधान इस्लाम में मौजूद है
जीवन बिताने का श्रेष्ठ उपाय यही है कि इस्लामी शिक्षा का अनुपालन किया जाए क्योंकि इस्लाम केवल ईश्वरीय उपदेशों का संग्रह मात्र नहीं है वरन् यह मानव समाज की समस्त समस्याओं का सकारात्मक समाधान प्रस्तुत करता है। इस्लाम व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों स्तरों पर सकारात्मक ओर व्यावहारिक मार्गदर्शन करता है। इस्लाम विश्व की श्रेष्ठतम जीवन पद्धति है क्योंकि यह एक स्वाभाविक विश्वधर्म है जो किसी विशेष जाति, रंग अथवा क्षेत्र के लोगों तक सीमित नहीं है।

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काफ़िर


Why do Muslims abuse non-Muslims by calling them ‘Kafirs’?

प्रश्नः मुसलमान ग़ैर मुस्लिमों का अपमान करते हुए उन्हें ‘‘काफ़िर’’ क्यों कहते हैं?

उत्तरः शब्द ‘‘काफ़िर’’ वास्तव में अरबी शब्द ‘‘कुफ्ऱ’’ से बना है। इसका अर्थ है ‘‘छिपाना, नकारना या रद्द करना’’। इस्लामी शब्दावली में ‘‘काफ़िर’’ से आश्य ऐसे व्यक्ति से है जो इस्लाम की सत्यता को छिपाए (अर्थात लोगों को न बताए) या फिर इस्लाम की सच्चाई से इंकार करे। ऐसा कोई व्यक्ति जो इस्लाम को नकारता हो उसे उर्दू में ग़ैर मुस्लिम और अंग्रेज़ी में Non-Muslim कहते हैं। यदि कोई ग़ैर-मुस्लिम स्वयं को ग़ैर मुस्लिम या काफ़िर कहलाना पसन्द नहीं करता जो वास्तव में एक ही बात है तो उसके अपमान के आभास का कारण इस्लाम के विषय में ग़लतफ़हमी या अज्ञानता है। उसे इस्लामी शब्दावली को समझने के लिए सही साधनों तक पहुँचना चाहिए। उसके पश्चात न केवल अपमान का आभास समाप्त हो जाएगा बल्कि वह इस्लाम के दृष्टिकोण को भी सही तौर पर समझ जाएगा।

 

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इस्लामी सज़ाएं


‘‘इस्लामी सज़ाएं बड़ी क्रूर व निर्दयतापूर्ण हैं।" ?


प्criminals2रश्न: इस्लामी सज़ाएं इतनी क्रूर व निर्दयतापूर्ण क्यों हैं। ? "वर्तमान सभ्यता में अंधकार काल की ऐसी सज़ाओं का क्या औचित्य कि हाथ काट दिया जाए, कोड़े लगाए जाएं, जान से मार दिया जाए! यह व्यक्तिगत मानव-अधिकार का हनन है।’’

उत्तर: इस्लामी शरीअत की सज़ाएं, संक्षेप में निम्नलिखित हैं, जिन्हें ‘क्रूर’ और ‘निर्दयतापूर्ण’ तथा ‘मानवाधिकार-हनन’ कहा जाता है :
1. चोरी की सज़ा ‘हाथ काट देना’।
2. व्यभिचार, बलात्कार की सज़ा ‘कोड़े मारना’ या ‘जान से मार डालना’, (जैसा अपराध हो उसी के अनुकूल)।
3. व्यभिचार (या बलात्कार) का आरोप (जिसे गवाहों द्वारा सिद्ध न किया जा सके) लगाने वाले को ‘कोड़े मारने’ की सज़ा।
4. हत्यारे को ‘हत्या-दंड’।
आज के समाज में जिसे स्वयं हम ही लोगों ने बनाया है न कि इस्लाम ने, और जो सेक्युलर (ईश्वर-विहीन) होने के कारण से नैतिकता व ईशपरायणता पर आधारित समाज नहीं बल्कि भौतिकता, स्वच्छंदता तथा अनैतिकता से बोझिल समाज है, उपरोक्त सज़ाएं सचमुच क्रूर और निर्दयतापूर्ण हैं। ऐसी सामाजिक, सांस्कृतिक व नैतिक व्यवस्था में उपरोक्त सख़्त सज़ाएं लागू ही नहीं हो सकतीं। इस्लाम तो पहले एक ईश-केन्द्रित (God-centred) और परलोक मुखी (Akhirah oriented) समाज और सामूहिक व्यवस्था, कल्चर, सभ्यता-संस्कृति बनाता है। उसमें चोरी, व्यभिचार, बलात्कार, हत्या, उपद्रव, डाका आदि के अवसरों की संभावना को शिक्षा-दीक्षा, नैतिक प्रशिक्षण, ईश-भय तथा परलोक में, हर कर्म के (ईश्वर के समक्ष) उत्तरदायित्व तथा अपराधों की अवश्यंभावी सज़ा के दृढ़ विश्वास द्वारा कम करते-करते न्यूनतम स्तर पर ले आता है, बल्कि कुछ मामलों में तो शून्य-स्तर पर। इसके बाद भी जब कोई व्यक्ति (नारी य पुरुष) अपराध करता है तो इस्लाम इससे यह निष्कर्ष निकालता है कि वह व्यक्ति समाज के शरीर का कैंसर और ज़हर है। उसे यदि समाज से समाप्त न कर दिया गया, या उसका ज़हर निकाल न दिया गया तो वह समाज के लिए घातक और समाज के नैतिक स्वास्थ्य के लिए अतिहानिकारक होगा। इस प्रकार इस्लाम एक या चन्द-एक ऐसे ‘कैंसरों’ से समाज-शरीर को मुक्त करने के लिए कठोरतम सज़ाओं का प्रावधान करता है।

चोरी की सज़ा:
इस्लामी राज्य सचमुच का ‘कल्याणकारी राज्य’ (Welfare state) होता है (न कि उन ‘सेक्युलर डिमॉक्रेटिक’ राज्यों की तरह जो स्वयं के ‘कल्याणकारी’ होने का दावा व प्रोपगंडा करते हैं लेकिन उन्हीं की छत्रा-छाया में लाखों-करोड़ों निर्धन, ग़रीब, दरिद्र तथा आजीविका संसाधन से वंचित लोग दो रोटी को तरस्ते, भूखों मरते, दवा-इलाज कराने में असमर्थ रहते, आत्महत्या तक कर लेते हैं)। इस्लामी (कल्याणकारी) राज्य में यह शासन का उत्तरदायित्व होता है कि अपने किसी भी नागरिक को मूलभूत आवश्यकताओं और आजीविका संसाधन से वंचित न रहने को यक़ीनी बनाए। इसके बाद भी यदि कोई व्यक्ति चोरी करे तो स्पष्ट है कि वह चोरी के लिए मजबूर नहीं था। तब इस्लाम उस पर अपना क़ानून लागू कर देता है; क़ुरआन कहता है:
‘‘और चोर, चाहे औरत हो या मर्द, दोनों के हाथ काट दो।’ यह उनकी कमाई का बदला है और अल्लाह की ओर से शिक्षाप्रद सज़ा...।’’ (5:38)
’(पहली चोरी पर दायां हाथ, दोबारा चोरी करे तो बायां हाथ। इस्लामी शरीअत में व्याख्या की गई है कि किन चीज़ों की (कितनी मात्रा की) चोरी पर यह सज़ा नहीं दी जाएगी।)
इस्लामी शासक (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰ के दूसरे उत्तराधिकारी हज़रत उमर (रज़ि॰) के शासनकाल (634-645 ई॰) में एक बार इतना भारी अकाल पड़ा कि देश और समाज की आर्थिक स्थिति असमान्य हो गई। एक व्यक्ति ने चोरी की। सिद्ध हो जाने पर कि उसने बहुत मजबूरी की हालत में चोरी की थी, हज़रत उमर (रज़ि॰) ने अस्थाई रूप से चोरी की सज़ा (हाथ काट देना) निलंबित (Suspend) कर दिया था।
सामान्य परिस्थितियों में, हाथ काटने की सज़ा देकर इस्लाम ने व्यक्ति को, समाज को बड़ी बेचैनी, बदअमनी से और प्रशासन व्यवस्था व न्याय व्यवस्था को अपराधों के भारी बोझ से बचा लिया।

व्यभिचार/बलात्कार की सज़ा:
इस्लाम ने अपनी परदा-प्रणाली द्वारा, और विपरीत लिंगों (Opposite sexes) के बेरोकटोक, अनियंत्रित, स्वच्छंद मेल-जोल पर अंकुश लगाकर व्यभिचार (ससहमति अवैध यौनाचार) तथा बलात्कर का प्रवेश-द्वार बन्द कर दिया। अब भी यदि कोई व्यक्ति (महिला या पुरुष) इस द्वार को तोड़ कर अपराध-गृह में घुस जाए तो इसका मतलब है कि वह मनुष्य नहीं, शैतान है। उसे कठोरतम सज़ा देकर समाज को ऐसी शैतनत तथा इसके अनेकानेक दुष्परिणामों और कुप्रभावों से बचाने का प्रावधान अवश्य करना चाहिए। अब इस्लाम उस पर अपना क़ानून लागू कर देता है। क़ुरआन कहता है—
‘‘व्यभिचारिणी औरत और व्यभिचारी मर्द दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो। और उन पर तरस खाने की भावना अल्लाह के धर्म के विषय में तुम को न सताए अगर तुम अल्लाह और अन्तिम दिन (परलोक में हिसाब-किताब और कर्मों के बदला मिलने के दिन) पर ईमान रखते हो। और उनको सज़ा देते समय ईमान वालों का एक गिरोह (वहां) मौजूद रहे।’* (24:2)
*(ताकि समाज में यदि कुछ बुरे तत्व हों तो वे डर जाएं और ऐसा कुकृत्य करने की हिम्मत न कर सकें।)
वर्तमान सेक्युलर क़ानून ससहमति व्यभिचार (Fornication) को क़ाबिले सज़ा क़ानूनी जुर्म नहीं मानता (बल्कि, अफ़सोस है कि इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ‘मानवाधिकार’ मानता है)। यह सोचा ही नहीं जाता कि ससहमति व्यभिचार, यहीं नहीं रुका रहता बल्कि अगले चरण, ‘बलात्कार’ में भी क़दम रखे बिना इसका पूर्ण समापन नहीं होता। इस्लाम ने यह मूर्खता नहीं की है। हां इतना ख़्याल अवश्य रखा है इन्सानी कमज़ोरी का कि शरीअत ने अविवाहित (एक या दोनों पक्षों) को अस्सी-अस्सी कोड़े मारने की; और विवाहित होकर भी व्यभिचार/बलात्कार करने वाले को ‘पत्थर मार-मारकर मार डालने’ की सज़ा नियुक्त की है। इससे व्यभिचार/बलात्कार के ‘न्यूनतम स्तर’ को ‘शून्य-स्तर (Zero level) पर ले आना अभीष्ट (Required) है।
 

व्यभिचार/बलात्कार के असिद्ध आरोप की सज़ा:
इस्लाम की दृष्टि में चरित्रा-हनन (Character Assassination) और किसी को अनुचित बदनाम करना (Defamation) बड़ा पाप है। विशेषतः शीलवान स्त्रियों/पुरुषों पर व्यभिचार/ बलात्कार का झूठा आरोप लगाना तो महापाप है और क़ानूनन अपराध भी। क़ुरआन कहता है:
‘‘और जो लोग पाकदामन (शीलवान) औरतों पर तोहमत (मिथ्यारोप) लगाएं, फिर चार गवाह लेकर न आएं उनको अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी स्वीकार न करो, और वे ख़ुद ही पापी हैं, सिवाय उन लोगों के जो इस हरकत के बाद तौबा कर लें और सुधर जाएं; अल्लाह अवश्य (उनके प्रति) क्षमाशील और दयावान है।’’ (24:4,5)(यदि किसी व्यभिचारी/बलात्कारी पर चार गवाह न हों तो क़ानून तो उसे/उन्हें सज़ा नहीं देगा। लेकिन उसका/उनका साफ़ छूट जाना यह अर्थ हरगिज़ नहीं रखता कि उनके इस अपराध की कोई सज़ा ही न थी। परलोक जीवन में, जिसमें कि यहां के पापों व अपराधों का पूरी सज़ा मिलनी, ईश्वर की न्याप्रदता का तक़ाज़ा है, व्यभिचारी या बलात्कारी को नरक की घोर, कठोर यातना मिलकर रहेगी)।

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नाहक़ (अनुचित) हत्या की सज़ा:
सेक्युलर क़ानून-व्यवस्था में, ‘मानवाधिकार’ के तर्क पर (कुछ अति विशेष मामलों को छोड़कर साधारणतया) हत्या की सज़ा ‘मौत’ का प्रावधान नहीं रखा गया है। यह क़ानून प्रत्यक्ष तथा आश्चर्यजनक रूप से हत्यारे के प्रति बड़ी हद तक सहानुभूति और दयाशीलता का पक्षधर है और जिसकी हत्या हुई उसके परिजनों (माता-पिता, औलाद, पत्नी, परिवार आदि) की भावनाओं, उनकी मुसीबतों व समस्याओं, उनकी आर्थिक कठिनाइयों से निस्पृह (Indifferent)। हत्यारे का तो ‘मानवाधिकार’ प्रिय हो जाता है और प्रभावित परिवार का मानवाधिकार उसके घर के अन्दर एड़ियां रगड़-रगड़ कर बिलखता, तड़पता रहता है। हत्यारा कुछ समय बाद जेल से छूटकर मौज कर रहा होता है और पीड़ित परिवार रंज, ग़म, ग्लानि, पीड़ा, अनाथपन, विधवापन, और कुछ मामलों में आर्थिक तबाही, बरबादी, बेबसी आदि की मार खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। परिणामतः हज़ारों हत्याएं प्रतिवर्ष होती हैं। अदालतें ऐसे मुक़दमों के बोझ तले दबी कराह रही होती हैं। हत्या के प्रतिरोध में भी हत्याएं होती हैं। शत्रुता, अशान्ति से परिवार, घराने और समाज प्रदूषित होकर रह जाते हैं।
इस्लाम ऐसी परिस्थिति को न बर्दाश्त करता है न उत्पन्न होने देता है, न पनपने, फलने-पू$लने देता है। क़ुरआन कहता है:
‘‘ऐ लोगो जो ईमान लाए हो तुम्हारे लिए हत्या के मुक़दमों में क़िसास (बदले) का आदेश लिख दिया गया है। आज़ाद आदमी ने हत्या की हो तो उस आज़ाद आदमी से ही बदला लिया जाए, ग़ुलाम हत्यारा हो तो वह ग़ुलाम ही क़त्ल किया जाए, और औरत ने हत्या की हो तो उस औरत से। हां, यदि किसी क़ातिल के साथ, उसका भाई (अर्थात् मृतक का कोई परिजन, जो इन्सानी रिश्ते से ‘भाई’ ही है) कुछ नरमी करने के लिए तैयार हो तो सामान्य नियम के अनुसार ख़ून के माली (रुपये-पैसे से) बदले का निपटारा होना चाहिए और क़ातिल के लिए आवश्यक है कि भले तरीवे़$ से ‘ख़ून-बहा’ (हत्या प्रतिदान राशि) चुका दे...अक़्ल और सूझबूझ वालो, तुम्हारे लिए ‘क़िसास’ में ज़िन्दगी है। आशा है कि तुम इस क़ानून के उल्लंघन से बचोगे।’’ (2:178,179)
क़ुरआन ने ‘क़त्ल की सज़ा क़त्ल’ (या हत्या-प्रतिदान-राशि) को ‘ज़िन्दगी’ कहा है क्योंकि इससे, आगे क़त्ल होने वाली बहुत-सी ज़िन्दगियां बच जाती हैं। अतः इसे ‘क्रूरता’ और ‘निर्दयता’ कहने का कोई औचित्य ही नहीं है।


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मानवाधिकार की आधारशिला

(पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) का विदायी अभिभाषण)

 

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इस्लाम में मानवाधिकार

 पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ईश्वर की ओर से, सत्यधर्म को उसके पूर्ण और अन्तिम रूप में स्थापित करने के जिस मिशन पर नियुक्त किए गए थे वह 21 वर्ष (23 चांद्र वर्ष) में पूरा हो गया और ईशवाणी अवतरित हुई :
‘‘...आज मैंने तुम्हारे दीन (इस्लामी जीवन व्यवस्था की पूर्ण रूपरेखा) को तुम्हारे लिए पूर्ण कर दिया है और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे दीन की हैसियत से क़बूल कर लिया है...।’’    
(कु़रआन, 5:3)
आप (सल्ल॰) ने हज के दौरान ‘अरफ़ात’ के मैदान में 9 मार्च 632 ई॰ को एक भाषण दिया जो मानव-इतिहास के सफ़र में एक ‘मील का पत्थर’ (Milestone) बन गया। इसे निस्सन्देह ‘मानवाधिकार की आधारशिला’ का नाम दिया जा सकता है। उस समय इस्लाम के लगभग सवा लाख अनुगामी लोग वहाँ उपस्थित थे। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ऐसे लोगों को नियुक्त कर दिया गया था जो आपके वचन-वाक्यों को सुनकर ऊँची आवाज़ में शब्दतः दोहरा देते; इस प्रकार सारे श्रोताओं ने आपका पूरा भाषण सुना।



भाषण

आपने पहले ईश्वर की प्रशंसा, स्तुति और गुणगान किया, मन-मस्तिष्क की बुरी उकसाहटों और बुरे कामों से अल्लाह की शरण चाही; इस्लाम के मूलाधार ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद’ की गवाही दी और फ़रमाया :
● ऐ लोगो! अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है, वह एक ही है, कोई उसका साझी नहीं है। अल्लाह ने अपना वचन पूरा किया, उसने अपने बन्दे (रसूल) की सहायता की और अकेला ही अधर्म की सारी शक्ति को पराजित किया।
● लोगो मेरी बात सुनो, मैं नहीं समझता कि अब कभी हम इस तरह एकत्र हो सवें$गे और संभवतः इस वर्ष के बाद मैं हज न कर ससूंगा।
● लोगो, अल्लाह फ़रमाता है कि, इन्सानो, हम ने तुम सब को एक ही पुरुष व स्त्री से पैदा किया है और तुम्हें गिरोहों और क़बीलों में बाँट दिया गया कि तुम अलग-अलग पहचाने जा सको। अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अच्छा और आदर वाला वह है जो अल्लाह से ज़्यादा डरने वाला है। किसी अरबी को किसी ग़ैर-अरबी पर, किसी ग़ैर-अरबी को किसी अरबी पर कोई प्रतिष्ठा हासिल नहीं है। न काला गोरे से उत्तम है न गोरा काले से। हाँ आदर और प्रतिष्ठा का कोई मापदंड है तो वह ईशपरायणता है।
● सारे मनुष्य आदम की संतान हैं और आदम मिट्टी से बनाए गए। अब प्रतिष्ठा एवं उत्तमता के सारे दावे, ख़ून एवं माल की सारी मांगें और शत्रुता के सारे बदले मेरे पाँव तले रौंदे जा चुके हैं। बस, काबा का प्रबंध और हाजियों को पानी पिलाने की सेवा का क्रम जारी रहेगा। कु़रैश के लोगो! ऐसा न हो कि अल्लाह के समक्ष तुम इस तरह आओ कि तुम्हारी गरदनों पर तो दुनिया का बोझ हो और दूसरे लोग परलोक का सामन लेकर आएँ, और अगर ऐसा हुआ तो मैं अल्लाह के सामने तुम्हारे कुछ काम न आ सकूंगा।
● कु़रैश के लोगो, अल्लाह ने तुम्हारे झूठे घमंड को ख़त्म कर डाला, और बाप-दादा के कारनामों पर तुम्हारे गर्व की कोई गुंजाइश नहीं। लोगो, तुम्हारे ख़ून, माल व इज़्ज़त एक-दूसरे पर हराम कर दी गईं हमेशा के लिए। इन चीज़ों का महत्व ऐसा ही है जैसा तुम्हारे इस दिन का और इस मुबारक महीने का, विशेषतः इस शहर में। तुम सब अल्लाह के सामने जाओगे और वह तुम से तुम्हारे कर्मों के बारे में पूछेगा।
● देखो, कहीं मेरे बाद भटक न जाना कि आपस में एक-दूसरे का ख़ून बहाने लगो। अगर किसी के पास धरोहर (अमानत) रखी जाए तो वह इस बात का पाबन्द है कि अमानत रखवाने वाले को अमानत पहुँचा दे। लोगो, हर मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है और सारे मुसलमान आपस में भाई-भाई है। अपने गु़लामों का ख़्याल रखो, हां गु़लामों का ख़्याल रखो। इन्हें वही खिलाओ जो ख़ुद खाते हो, वैसा ही पहनाओ जैसा तुम पहनते हो।
● जाहिलियत (अज्ञान) का सब कुछ मैंने अपने पैरों से कुचल दिया। जाहिलियत के समय के ख़ून के सारे बदले ख़त्म कर दिये गए। पहला बदला जिसे मैं क्षमा करता हूं मेरे अपने परिवार का है। रबीअ़-बिन-हारिस के दूध-पीते बेटे का ख़ून जिसे बनू-हज़ील ने मार डाला था, मैं क्षमा करता हूं। जाहिलियत के समय के ब्याज (सूद) अब कोई महत्व नहीं रखते, पहला सूद, जिसे मैं निरस्त कराता हूं, अब्बास-बिन-अब्दुल मुत्तलिब के परिवार का सूद है।
● लोगो, अल्लाह ने हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया, अब कोई किसी उत्तराधिकारी (वारिस) के हक़ में वसीयत न करे।



● बच्चा उसी के तरफ़ मन्सूब किया जाएगा जिसके बिस्तर पर पैदा हुआ। जिस पर हरामकारी साबित हो उसकी सज़ा पत्थर है, सारे कर्मों का हिसाब-किताब अल्लाह के यहाँ होगा।
● जो कोई अपना वंश (नसब) परिवर्तन करे या कोई गु़लाम अपने मालिक के बदले किसी और को मालिक ज़ाहिर करे उस पर ख़ुदा की फिटकार।
● क़र्ज़ अदा कर दिया जाए, माँगी हुई वस्तु वापस करनी चाहिए, उपहार का बदला देना चाहिए और जो कोई किसी की ज़मानत ले वह दंड (तावान) अदा करे।
स किसी के लिए यह जायज़ नहीं कि वह अपने भाई से कुछ ले, सिवा उसके जिस पर उस का भाई राज़ी हो और ख़ुशी-ख़ुशी दे। स्वयं पर एवं दूसरों पर अत्याचार न करो।
● औरत के लिए यह जायज़ नहीं है कि वह अपने पति का माल उसकी अनुमति के बिना किसी को दे।
● देखो, तुम्हारे ऊपर तुम्हारी पत्नियों के कुछ अधिकार हैं। इसी तरह, उन पर तुम्हारे कुछ अधिकार हैं। औरतों पर तुम्हारा यह अधिकार है कि वे अपने पास किसी ऐसे व्यक्ति को न बुलाएँ, जिसे तुम पसन्द नहीं करते और कोई ख़्यानत (विश्वासघात) न करें, और अगर वह ऐसा करें तो अल्लाह की ओर से तुम्हें इसकी अनुमति है कि उन्हें हल्का शारीरिक दंड दो, और वह बाज़ आ जाएँ तो उन्हें अच्छी तरह खिलाओ, पहनाओ।
● औरतों से सद्व्यवहार करो क्योंकि वह तुम्हारी पाबन्द हैं और स्वयं वह अपने लिए कुछ नहीं कर सकतीं। अतः इनके बारे में अल्लाह से डरो कि तुम ने इन्हें अल्लाह के नाम पर हासिल किया है और उसी के नाम पर वह तुम्हारे लिए हलाल हुईं। लोगो, मेरी बात समझ लो, मैंने तुम्हें अल्लाह का संदेश पहुँचा दिया।
● मैं तुम्हारे बीच एक ऐसी चीज़ छोड़ जाता हूं कि तुम कभी नहीं भटकोगे, यदि उस पर क़ायम रहे, और वह अल्लाह की किताब (क़ुरआन) है और हाँ देखो, धर्म के (दीनी) मामलात में सीमा के आगे न बढ़ना कि तुम से पहले के लोग इन्हीं कारणों से नष्ट कर दिए गए।
● शैतान को अब इस बात की कोई उम्मीद नहीं रह गई है कि अब उसकी इस शहर में इबादत की जाएगी किन्तु यह संभव है कि ऐसे मामलात में जिन्हें तुम कम महत्व देते हो, उसकी बात मान ली जाए और वह इस पर राज़ी है, इसलिए तुम उससे अपने धर्म (दीन) व विश्वास (ईमान) की रक्षा करना।
● लोगो, अपने रब की इबादत करो, पाँच वक़्त की नमाज़ अदा करो, पूरे महीने के रोज़े रखो, अपने धन की ज़कात ख़ुशदिली के साथ देते रहो। अल्लाह के घर (काबा) का हज करो और अपने सरदार का आज्ञापालन करो तो अपने रब की जन्नत में दाख़िल हो जाओगे।
● अब अपराधी स्वयं अपने अपराध का ज़िम्मेदार होगा और अब न बाप के बदले बेटा पकड़ा जाएगा न बेटे का बदला बाप से लिया जाएगा ।
● सुनो, जो लोग यहाँ मौजूद हैं, उन्हें चाहिए कि ये आदेश और ये बातें उन लोगों को बताएँ जो यहाँ नहीं हैं, हो सकता है, कि कोई अनुपस्थित व्यक्ति तुम से ज़्यादा इन बातों को समझने और सुरक्षित रखने वाला हो। और लोगो, तुम से मेरे बारे में अल्लाह के यहाँ पूछा जाएगा, बताओ तुम क्या जवाब दोगे? लोगों ने जवाब दिया कि हम इस बात की गवाही देंगे कि आप (सल्ल॰) ने अमानत (दीन का संदेश) पहुँचा दिया और रिसालत (ईशदूतत्व) का हक़ अदा कर दिया, और हमें सत्य और भलाई का रास्ता दिखा दिया।
यह सुनकर मुहम्मद (सल्ल॰) ने अपनी शहादत की उँगुली आसमान की ओर उठाई और लोगों की ओर इशारा करते हुए तीन बार फ़रमाया, ऐ अल्लाह, गवाह रहना! ऐ अल्लाह, गवाह रहना! ऐ अल्लाह, गवाह रहना।

 

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